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Psychosomatic Disorder: लक्षण, इलाज Doctor Advice

sleeping disorder in youth

तनाव जो शरीर पर दिखता है – किशोरों में साइकोसोमैटिक लक्षण

किशोरावस्था (Teenage) वैसे भी बदलावों और दबावों से भरी होती है. पढ़ाई का तनाव, करियर की चिंता, परिवार या दोस्तों के रिश्तों में उतार-चढ़ाव – ये सब मिलकर दिमाग पर असर डालते हैं. कई बार यह मानसिक तनाव सिर्फ मन में नहीं रहता बल्कि शरीर पर भी दिखने लगता है. यही कहलाता है साइकोसोमैटिक डिसऑर्डर (Psychosomatic Disorder).

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Psychosomatic Disorder लक्षण क्या होते हैं?

  • लगातार पेट दर्द, लेकिन मेडिकल रिपोर्ट में कोई समस्या न दिखना.
  • बार-बार सिरदर्द होना, खासकर परीक्षा या दबाव के समय.
  • त्वचा पर एलर्जी या दाने निकलना, जो तनाव के समय ज्यादा हो जाते हैं.
  • नींद की समस्या, थकान और कमजोरी महसूस करना.

क्यों होते हैं ये लक्षण?

क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट्स बताते हैं कि जब दिमाग लगातार तनाव की स्थिति में रहता है तो शरीर में स्ट्रेस हार्मोन (कॉर्टिसोल, एड्रेनालिन) बढ़ जाते हैं. इसका असर पाचन तंत्र, इम्यून सिस्टम और नर्वस सिस्टम पर पड़ता है. नतीजा – बिना किसी मेडिकल कारण के भी शरीर दर्द या तकलीफ़ महसूस करता है.

किशोरों में क्यों आम है?

  • पढ़ाई और करियर का दबाव – परीक्षा, रिज़ल्ट और भविष्य की चिंता.
  • सामाजिक दबाव – दोस्तों के साथ तुलना, सोशल मीडिया का असर.
  • परिवारिक माहौल – झगड़े, अपेक्षाएं या आर्थिक तनाव.
  • बदलते हार्मोन – किशोरावस्था में शरीर और मन दोनों में अस्थिरता.

विशेषज्ञों की राय

मनोचिकित्सक (Psychiatrist) के अनुसार:
“साइकोसोमैटिक लक्षणों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए. यह किशोर के दिमाग का SOS सिग्नल होता है कि उसे सपोर्ट और मदद की ज़रूरत है. “

क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट का कहना है:
“थेरेपी, स्ट्रेस मैनेजमेंट और परिवार का भावनात्मक सपोर्ट इन लक्षणों को काफी हद तक कम कर सकता है. “

समाधान और देखभाल

✅ ओपन कम्युनिकेशन – बच्चे को अपनी बात खुलकर कहने का मौका दें.
✅ स्ट्रेस मैनेजमेंट – योग, मेडिटेशन, एक्सरसाइज़ को रूटीन का हिस्सा बनाएं.
✅ काउंसलिंग/थेरेपी – प्रोफेशनल मदद लेने से जल्दी सुधार होता है.
✅ बैलेंस्ड लाइफस्टाइल – पर्याप्त नींद, पौष्टिक आहार और टेक्नोलॉजी पर लिमिट.

साइकोसोमैटिक डिसऑर्डर यह याद दिलाते हैं कि शरीर और मन एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हैं. किशोरों में इन लक्षणों को “बहाना” या “नखरे” समझकर टालना नहीं चाहिए. सही समय पर समझ, समर्थन और विशेषज्ञ की मदद से बच्चा न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक रूप से भी स्वस्थ रह सकता है.

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