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जिल्ले इलाही बने बेशर्म तंत्र से सुभाष मांझी की लाश के झकझोर देने वाले सवाल !

मुंहबाए खड़े सरकारी विज्ञापन, 200 की खरीद पर 10 परसेंट कैश बैक देने वाले पोस्टर, खूबसूरत मॉडल से बाजार के प्रोडक्स वाली तस्वीरों से नजर हटाकर एक औरत की गोद में लाश देखना, इकलौते कमाई करने वाले पति की लाश की अंतिम संस्कार ना कर पाने का दर्द, शायद हमारी आंखों को पसंद ना आए. शहर में उड़ती धूल और आंखों पर लगे महंगे चश्में हमारी आंखों को इस बात की इजाजत ही नहीं देते हैं कि वे बेबस, बेकल, थका हुआ तन, चमड़े से बाहर को झांकती हुई नसें, सूखी हड्डी पर रूखी पतली चमड़ी ढोने वाले शरीर को देखें, उनके दर्द को महसूस करें. ये सारे शरीर बिन पते की खत की तरह इधर उधर समाज और सिस्टम के थपेड़ों में झुलते रहते हैं.

भागलपुर के दिहाड़ी मजदूर सुभाष मांझी की नदी में डूबने से मौत हो गई. लोकतंत्र में स्थापित सिस्टम ने कहा पोस्टमार्टम होगा, पोस्टमार्टम हुआ.. और फिर लोकतंत्र के रखवालों ने विधवा और 6 बच्चों की मां से कहा- लाश चाहिए तो पांच हजार रूपये दो. अभी आंखों से आंसू बह ही रहे थे. आंसुओं से भीगे, विपत्ति के घेरे में व्याकुल विधवा पड़ोसियों से घूस देने के लिए कर्ज मांगने लगी. कागज़ों में, कहानियों में, लड़ाइयों में कभी बंटते, कभी एकजुट रहे समाज ने 2700 रुपये कर्ज दिया. विधवा पति की लाश को देखने के लिए ड्राइवर को पैसे दी. लाश दरवाजे पर पड़ी है और फिर भीख मांगने निकल पड़ी विधवा, पैसे दो तो अंतिम संस्कार करूं. पूरी खबर यहां पढ़ें.

चमचमाती, चिल्लाती, चहकती, सिसकती, उथल-पुथल मचाती जिंदगी की राग पर हम और आप नाच रहे हैं. लेकिन सोचिए इन गरीब मासूमों की गर्दन सरकारी ‘मेहरबानियां’ रोज मरोड़ रही हैं. जिन औरतों के आंचल को हटाकर ‘गिद्ध’ नोच रहे हैं. आपके मन में एक सवाल आएगा कि 6 बच्चे पैदा करने वाले सुभाष मांझी परिवार नियोजन क्यों नहीं अपनाए. सिक्का उल्टा करिए और अपने आप से पूछिए सुभाष मांझी की पढ़ाई क्यों नहीं हो पायी. वह इतने समझदार क्यों नहीं हुए. स्कूल क्यों नहीं जा पाए. क्योंकि सरकारी सिस्टम ने उन्हें सहुलियत देकर शिक्षित बनाने के बजाए शोषण का जरिया समझा. सुभाष मांझी की लाश पूछ रही है आपसे और हमसे कि बताओ, लाश देखने के बदले मेरी पत्नी कर्ज मांगने के लिए दरदर भटकना क्यों पड़ा? विधायक जी, सांसद जी, डीएम साहब… बताइए इस 2700 रुपये के कर्ज में सबका हिस्सा कितना है? यदि नहीं है तो यह तंत्र कैसे बना कि लाश चाहिए तो घूस दो.

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जब रोटी का संघर्ष इतना बड़ा हो जाए कि जीना बोझ लगने लगे, तब इंसान मौत को गले लगाने को मजबूर हो जाता है. मोकामा के सम्यागढ़ की मनीषा देवी ने भी शायद यही सोचा और अपने दोनों बच्चों के साथ बाड़ी नदी में छलांग लगा दी. इस घटना ने पूरे गाँव को झकझोर दिया. पूरी खबर यहां पढ़ें.

बस यह खबर जरा ठहर कर सोचने के लायक है. इस चमकते न्यू इंडिया में.. बिहार में आजकल सफेद चकचक कुर्ता पहने और हेलीकॉप्टर से सूबे की सेवा के लिए चिंतित सभी नेता सिंहासन पर पहुंचने के लिए अपनी तरकश से हर तीर चला रहे हैं. कह रहे हैं कि मुझे सिंहासन दो, मैं अपनी स्याही से आपकी किस्मत को रंगीन बना दूंगा. भूख से पीड़ित गरीबों के बच्चे उस दिन की दिहाड़ी समझकर चंद पैसों में रैलियों में किसी भी पार्टी का झंडा उठा लेते हैं. नेता जी आते हैं, रंगीन सपने दिखाते हैं या जाति या धर्म का डर दिखाते हैं और पीठ में सटे पेट डर या उम्मीद के झांसे में फंस जाते हैं. दशकों से चले आ रहे इस तंत्र को देखकर या सोचने भरने से गला रेत की तरह सूख जाता है और शब्द बंजर पड़ जाते हैं.

खबरों की दुनिया में रहने का आलम यह है कि आप समाज का विभत्स रूप देखते हैं. आपके सामने भ्रष्ट व्यवस्था रोज संवेदनाओं का बलात्कार करती है. दिल तड़पता है..फड़फड़ाता है..सिर्फ कलम चलाने के अलावे कुछ ना कर पाने का दंश झेलता है. आंकड़ों की जुबानी बात करना कभी-कभी लूट की मानिंद लगता है जब कोट पैंट वाले अधिकारी रोज शासकों के मुताबिक मनमोहक रूप से इसे जबर्दस्ती हमारे कानों में ठूंस रहे होते हैं..

हल चलाने वाले, उस अनाज को मंडी से उठाकर थाली तक पहुंचाने वाले, पहचान के मोहताज ‘भारत भाग्य विधाता’ के बच्चे रोटी के निवाले, दवाई और कमाई से महरूम हैं. उसके रूखे हुए हाथों में अगर कुछ है तो वो है वोट देने का अधिकार, जिसे वो खर्च करता है या नहीं, उसे मालूम नहीं…!

संपादकीय लेखलेखक- प्रकाश नारायण सिंह